स्वामी ब्रह्मविद्यानन्द सरस्वती का अध्यास विषय पर व्याख्यान

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भोपाल
आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास द्वारा 45वीं शंकर व्याख्यानमाला में आर्ष विद्या फाउंडेशन मुंबई के संस्थापक एवं आचार्य स्वामी ब्रह्म विद्यानंद सरस्वती जी ने अध्यास विषय पर व्याख्यान दिया। स्वामी जी ने बताया कि आचार्य शंकर की समस्त रचनाओं में सबसे प्रमुख है, ब्रह्मसूत्र के प्रारंभिक परिचय में लिखा गया अध्यास भाष्य।

रस्सी को सांप अथवा ब्रह्म को जीव या जगत समझना ही है अध्यास
 स्वामी जी ने बताया कि वेदांत की दृष्टि में सब कुछ ब्रह्म ही है, अर्थात ब्रह्म देश और काल से परे है। स्वामी जी ने बताया कि किसी वस्तु का जो मूल स्वरूप है उसको न जान कर भ्रमवश अथवा अज्ञानवश उसको कुछ और समझना ही अध्यास है। उदाहरण स्वरूप, रस्सी को सांप समझना, रेगिस्तान में पानी का भ्रम होना अथवा सीपी में रजत अर्थात चांदी का भ्रम होना।

आचार्य शंकर की अथवा वेदांत की दृष्टि में संपूर्ण जगत ही अध्यास है, जब हम अनंत ब्रह्म को सीमित जगत समझने लगते हैं। जिस प्रकार पुस्तक का सत्य कागज है, मटके का सत्य मिट्टी है और आभूषणों का सत्य स्वर्ण है, उसी प्रकार शरीर और जगत आदि का सत्य अनंत चेतन तत्व यानी ब्रह्म है। ब्रह्म तत्व के अज्ञान के कारण वह हमें जगत रूप में भासित होता है। साक्षी चैतन्य होने पर भी स्वयं को मन और शरीर मान लेना भी अध्यास है और इसी अज्ञान के कारण हम स्वयं को कर्ता और भोक्ता मान बैठते हैं। अपने स्वरूप का अज्ञान ही अध्यास रूपी समस्या को जन्म देता है।

समाधान – अज्ञान के निषेध से ही आत्मबोध होता है
स्वामी जी ने बताया कि अपने वास्तविक स्वरूप यानी सत्य ज्ञान-अनंत ब्रह्म का बोध होना ही निर्वाण है। इसके लिए ब्रह्मनिष्ठ गुरू की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार रस्सी में सांप का भ्रम होने के कारण उसमें सांप के गुण नहीं आते हैं, उसकी वास्तविकता वही रहती है, उसी प्रकार हमारे अज्ञान के कारण हमारा स्वरूप नहीं बदलता है वह वास्तविक ही होता है। हमें केवल उसका बोध करना है। सत्य के ज्ञान हेतु असत्य का निषेध करना पड़ता है, जो कि प्रमाण अर्थात उपनिषद के ज्ञान से संभव होता है।

स्वामी ब्रह्मविदानन्द सरस्वती
स्वामी ब्रह्मविदानन्द सरस्वती जी वैदिक ज्ञान के शिक्षण को समर्पित ट्रस्ट, आर्ष विद्या फाउंडेशन के संस्थापक हैं। उन्होंने वर्ष 1976 में ब्रह्मचर्य दीक्षा और 2003 में आर्ष विद्या गुरुकुलम् के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से ऋषिकेश में सन्यास दीक्षा ग्रहण की। स्वामी चिन्मयानंद जी से प्रेरित होकर वर्ष 1976 से 1978 तक सांदीपनी साधनालय, मुंबई में प्रस्थानत्रयी (गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र) तथा शांकरभाष्य का गहन अध्ययन किया। स्वामी जी ने सात वर्षों तक ऋषिकेश में स्वामी तारानंद गिरि जी और स्वामी हरिहर तीर्थ जी के साथ वेदांत ग्रंथों का अध्ययन किया।

गत 35 वर्षों से स्वामी जी वेदांत के छात्रों, साधकों, युवाओं और भारत तथा विदेशों में कॉर्पोरेट जगत आदि विभिन्न वर्गों के बीच वेदान्त का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। वेदान्त ग्रंथों के अलावा समकालीन वैश्विक विषयों की गहन समझ है। देश-विदेश के अनेक कॉर्पोरेट्स और शैक्षणिक संस्थानों को भी मार्गदर्शित करते हैं। स्वामीजी कराटे, शाओलिन और ताई ची चुआन जैसी मार्शल आर्ट के एक सक्रिय अभ्यासी एवं प्रशिक्षक भी हैं।

व्याख्यान न्यास के यूट्यूब और फेसबुक पर व्याख्यानमाला का लाइव प्रसारण किया गया। आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास द्वारा प्रतिमाह अद्वैत वेदांत के विषय पर व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है, जिसमें विश्व के प्रतिष्ठित आध्यात्मिक गुरू अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को सरलता से समझाते हैं।

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