कर्नाटक कांग्रेस में उबाल, हाईकमान की चुप्पी बढ़ा रही तनाव

बेंगलुरु
कर्नाटक में कांग्रेस का ज्वालामुखी फटने के कगार पर है. सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच का संघर्ष अब सिर्फ राख ही नहीं, लावा भी उगल रहा है. इस सूबे के कांग्रेसी इंतेजार में हैं कि पार्टी 'हाईकमान' समय रहते फायरब्रिगेड की भूमिका निभाएगा, लेकिन सबसे बड़े फायर फाइटर राहुल गांधी ही सीन से गायब हैं. दिलचस्प, सिर्फ हाईकमान की भूमिका ही नहीं, इस फसाद की जड़ भी है. जिसका कांग्रेस के भीतर एक लंबा अतीत है. किस तरह दो नेता आपस में टकराते हैं, और पार्टी दो धड़े में बंट जाती है और बिखर जाती है.
कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बने ढाई साल से ज्यादा हो चुका है, लेकिन माहौल स्थिर होने के उलट अब बेहद बेचैनी भरा है. राजनीतिक गलियारों में सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात की है कि आखिर मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर कांग्रेस के भीतर खींचतान कब खत्म होगी. सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच चली आ रही यह अंदरूनी टकराहट अब सिर्फ बैकग्राउंड की कहानी नहीं रह गई है. इस पूरे मामले में कांग्रेस हाईकमान की भूमिका बेहद अहम होने के बावजूद हाईकमान ही सबसे ज्यादा चुप है. और यही चुप्पी आज पूरे संकट का सबसे बड़ा कारण बन गई है.
कर्नाटक से आने वाली हर खबर में एक बात बार-बार दोहराई जाती है कि चुनाव के समय किसी तरह का सत्ता-साझेदारी का फॉर्मूला बना था. जिसके मुताबिक सिद्धारमैया आधा कार्यकाल पूरा करेंगे और उसके बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी शिवकुमार को मिल सकती है. हालांकि यह फॉर्मूला न तो कभी कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया, और न ही किसी दस्तावेज़ में इसका जिक्र है. लेकिन राजनीति में कई बातें कागज पर नहीं लिखी जातीं. बातें कमरे में होती हैं और भरोसे पर टिकी रहती हैं. यही भरोसा आज डगमगाया हुआ दिखता है. ऐसी ही हलचल कभी राजस्थान तो कभी छत्तीसगढ़ में देखी गई. राजस्थान में अशोक गेहलोत और सचिन पायलट के बीच खींचतान इस तरह बढ़ी थी कि लग रहा था कि सचिन भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह पार्टी छोड़ देंगे. ऐसा तो नहीं हुआ, लेकिन राज्य में कांग्रेस परोक्ष रूप से दो धड़ों में बंट गई. छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच 'पावर-शेयरिंग' फॉर्मूला अमल में नहीं लाया जा सका. कुलमिलाकर, जो एक बार सीएम की कुर्सी पर बैठा, वो फिर उठा नहीं. और कांग्रेस नेतृत्व की उस पर एक न चली.
सिद्धारमैया और शिवकुमार में से किसका पलड़ा भारी
राजस्थान में जैसे अशोक गेहलोत थे, वैसे ही कुछ कर्नाटक में सिद्धारमैया अपने पक्ष में समीकरण साधकर बैठे हैं. वे इस राज्य में लंबे समय से एक लोकप्रिय नेता रहे हैं. कई समुदायों में उनकी पकड़ मजबूत है, उनकी छवि प्रशासनिक अनुभव वाले नेता की है. दूसरी ओर, शिवकुमार कांग्रेस के संगठन, संसाधन और राजनीतिक नेटवर्क के मामले में बेहद ताकतवर नेता माने जाते हैं. वोक्कालिगा समुदाय में उनकी पकड़ किसी से छिपी नहीं है और पार्टी को वापस सत्ता में लाने में उनके योगदान को कांग्रेस का कोई भी नेता नजरअंदाज़ नहीं कर सकता. शिवकुमार सिर्फ कर्नाटक तक ही नहीं, उन्हें महाराष्ट्र, हिमाचल के राजनीतिक संकट में भी ट्रबलशूटर की भूमिका में देखा गया. लेकिन, कर्नाटक की सियासत में दोनों नेताओं वजन बराबर हो जाता है. और यही बराबरी हाईकमान के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है.
अब सवाल यह है कि हाईकमान क्या कर रहा है?
इस सवाल के जवाब से पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन के बयान का जिक्र करना जरूरी हो जाता है. कर्नाटक के दौरे पर गए खरगे से वहां की कांग्रेस के सभी धड़ों ने मुलाकात की, जिस पर उनका जवाब था कि 'सब पार्टी हाईकमान तय करेगा'. भाजपा इस पर मजे ले रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष होते भी खरगे पार्टी के हाईकमान नहीं बन पा रहे हैं. और भाजपा की इस दलील को महज राजनीति नहीं कहा जा सकता. खबर यह भी आई कि खरगे ने ढाई साल वाला फार्मूला आगे बढ़ाया था, लेकिन जब बात नहीं बनी तो पीछे हट गए. इधर, दिल्ली में डेरा डाले शिवकुमार समर्थक विधायक पार्टी महासचिव और राहुल गांधी के करीब केसी वेणुगोपाल से मुलाकात को तरसते रहे. लेकिन वेणुगोपाल केरल से लौटे ही नहीं.
कांग्रेस हाईकमान की कार्यशैली अक्सर 'इंतजार' की होती है. वह दोनों पक्षों की नाराजगी और ताकत को तौलता है, फिर किसी मोड़ पर हस्तक्षेप करता है. लेकिन कर्नाटक के मामले में हाईकमान की चुप्पी काफी लंबी हो गई है. और यही दोनों धड़ों को उम्मीद भी देता है और बेचैनी भी.
क्या हैं कर्नाटक में कांग्रेस के रिस्क फैक्टर्स
अगर हाईकमान यह कह दे कि सिद्धारमैया पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहेंगे, तो शिवकुमार का धड़ा इसे धोखा मान सकता है और यह नाराजगी पार्टी में खलबली मचा सकती है. जैसा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुआ. वहीं अगर हाईकमान यह संकेत दे कि सत्ता परिवर्तन होगा, तो सिद्धारमैया समर्थक खेमे में बेचैनी बढ़ सकती है. यानी एक नेता को खुश करने के चक्कर में दूसरे को नाराज करने का जोखिम बड़ा है, और हाईकमान फिलहाल ऐसा कोई जोखिम लेने के मूड में नहीं दिखता.
दूसरी वजह चुनावी राजनीति है. कर्नाटक दक्षिण भारत में कांग्रेस का सबसे मजबूत राज्य है. केरल में कांग्रेस है, लेकिन वहां स्थिति हर चुनाव में पलटती रहती है. तमिलनाडु में कांग्रेस जूनियर पार्टनर है. तेलंगाना में लंबे अरसे बाद सत्ता पास आई है. ऐसे में कर्नाटक कांग्रेस के लिए सिर्फ एक राज्य नहीं बल्कि दक्षिण भारत में उसका ग्रोथ इंजन है और ईंधन भी.
तीसरी बात यह है कि कर्नाटक में दोनों नेता अपनी-अपनी जगह बेहद महत्वाकांक्षी हैं. लेकिन हाईकमान को यह समझ में आता है कि यदि किसी एक की उम्मीदों को पूरी तरह दबाया गया, तो पार्टी को लंबे समय तक इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसलिए हाईकमान इस फैसला लेने में आनाकानी कर रहा है.
यह संकट सुलझने वाला है या नहीं?
फिलहाल राजनीतिक माहौल से ऐसा नहीं लगता कि हाल-फिलहाल कोई बड़ा फैसला होने वाला है. कांग्रेस उच्च नेतृत्व को शायद लग रहा है कि समय के साथ स्थिति खुद शांत हो जाएगी, या फिर कोई ऐसा मौका आएगा जब नेतृत्व परिवर्तन की दिशा में कदम उठाना आसान होगा, जैसे किसी बड़े चुनाव या कैबिनेट फेरबदल के बाद.
कुल मिलाकर, कर्नाटक का यह पूरा विवाद सिर्फ़ सत्ता की लड़ाई नहीं है. यह कांग्रेस हाईकमान की शैली, उसकी प्राथमिकताओं और उसके कामकाज का भी एक आईना है. चुप्पी कभी-कभी राजनीति में मदद करती है, लेकिन जब संकट लंबा खिंच जाए, तब वही चुप्पी अस्थिरता का कारण बन जाती है. कर्नाटक में फिलहाल यही हो रहा है. और सरकार व पार्टी दोनों इसकी कीमत चुका रहे हैं.



